गुरुवार, 28 जनवरी 2010

ब्लॉग के बारे में -

इस ब्लॉग का मुख्य उद्देश्य यह है कि श्रीमाली समाज की प्रतिभाओं को एक ऐसा मंच प्रदान करना जिस पर वह अपने कौशल(प्रतिभा) के द्वारा अन्य लोगो के लिए प्रेरणा का स्रोत बन सके। इस ब्लॉग को नियमित अपडेट किया जाएगा जिसके कारण वर्तमान के वैश्विक युग में जहां कहीं भी श्रीमाली समाज का कोई विशेष प्रयोजन होगा उसको आप ब्लॉग के माध्यम से तुरन्त जान सकेगें। इस हेतु आप सभी के सहयोग की आवश्यकता है। आपके पास सामाजिक सरोकारो संबंधी कोई भी सूचना या जानकारी हो आप ब्लॉग पर दिए गए पत्ते पर भिजवा सकते है। इस सामग्री को समाज के उत्थान हेतु उपयोग में लिया जाएगा।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

श्रीमाली ब्राह्मणों का उद्भव-

श्रीमाली ब्राह्मणों के इतिहास की जानकारी का सर्वोत्तम उपलब्ध प्रमाण श्रीमालपुराण है जिसे श्रीमाल माहात्म्य भी कहते हैं, इसके लेखक के अनुसार यह स्कन्ध पुराण का ही एक भाग है। श्रीमाल पुराण विक्रम की तेरहवीं सदी के पूर्वाद्ध की रचना प्रतीत होती है। यह पचहत्तर अध्याय व सैकड़ों श्लोको में संस्कृत भाषा में रचित है। श्रीमाल पुराण में श्रीमाल नगर एवं श्रीमाली ब्राहम्णों के संबंध में कथानक निम्न प्रकार से है- भृगु ऋषि के यहाँ एक बहुत सुन्दर कन्या का जन्म आसोज कृष्णा अष्टमी को हुआ। उसका नाम श्री (लक्ष्मी) रखा गया। उस कन्या का विवाह क्षीरसागर (बंगाल की खाड़ी) से भृगु के यहां आकर विष्णु भगवान ने किया। गरूड़ पर सवार होकर श्री के साथ विष्णु भगवान (प्रतीकात्मक) त्रयंबक सरोवर आये। उस कन्या ने सरावेर में स्नान किया जिससे उसका मानवीय जड़त्व मिटा और दिव्य देवत्व प्राप्त हुआ। तब श्री(लक्ष्मी) की इच्छा हुई की मैं यहां एक नगर बसाऊँ। इस प्रकार श्री के विवाह के अवसर पर श्रीमाल नगर की नींव पड़ी और तभी से श्रीमाली ब्राह्मण जाति का उद्भव हुआ। कालान्तर में श्रीमाली धीरे-धीरे मेवाड़ और मारवाड़ में फैल गये। इनकी बोली गुजराती से बहुत मिलती है। मारवाड़ी बोलचाल मे सिरमाली बोले जाते है और लिखावट में श्रीमाली लिखा जाता है। श्रीमाल नगर जो आज भीनमाल कहलाता है गुजरात व राजस्थान की सरहद पर बसा हुआ है इसलिए श्रीमाली मारवाड़ी व गुजराती मिश्रित बोली बोलते है। श्रीमालियों में सगाई अपने गोत्र में नहीं करते। माँ का गोत्र और जो नाना के गोद चले जाये तो सात पीढ़ी तक टालते है। सगाई वर-वधु के माता-पिता आपस में बातचीत कर निश्चित करते हैं। श्रीमाली मृत्यु होने पर उसे जलाते हैं। अपने किसी नजदीक वाले के मरने के समाचार सुन लेने पर कपड़ों सहित उनको स्नान करना पड़ता है। यह मरने के पश्चात उस व्यक्ति का क्रियाकर्म, मौसर, श्राद्ध, बरसी और छमछरी (मृत्यु की छमासी) आदि कार्य पूर्ण रीति के साथ करते है।

श्रीमाली ब्राह्मणों के गोत्र-

श्रीमालियों के 14 गोत्र व 4 आमनम तथा 84 अंवटक है। आमनाय पहले तो दो ही थी - एक मारवाड़ी व दूसरी मेवाड़ी परन्तु बाद में दो आमनाय और जुड़ गई। इनमें एक रिख तथा दूसरी लटकन थी। श्रीमाली जाति में चौदह गोत्र पाये जाते हैं जिनमें सात को यजुर्वेदी तथा बाकी के सात को सामवेदी कहा गया है। प्रत्येक गोत्र की अपनी एक कुलदेवी होती है इसी कारण इनमें एक ही गोत्र में विवाह निषेध है। इन 14 गोत्रों के 84 आंवटक या उप-समूह है जैसे दवे, व्यास, जोशी, बोहरा, इत्यादि इनका नाम था तो एक विशेष स्थान पर रहने से या एक विशेष प्रकार का काम करने से पड़ा। श्रीमाली ब्राह्मणों की कुलदेवी माता महालक्ष्मी है।
श्रीमाली ब्राह्मण वेदाध्यायी, कर्मकाण्डी तथा शुद्ध उच्चारण के लिये समस्त ब्राहम्णों में प्रसिद्ध हैं। श्रीमाली समाज के लोग मुख्य रूप से पूजन, पाठ, ब्याह और क्रिया-कर्म कराने का कार्य करते है।

उपनयन संस्कार -

श्रीमाली ब्राह्मणों का उपनयन संस्कार (जनेऊ डालना) एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इसलिए जब लड़का 8 वर्ष का हो जाता है उपनयन धारण करवाया जाता है। उपनयन संस्कार हेतु शुभ मुहुर्त निकाला जाता है तथा मुहुर्त के दिन लड़के को दुल्हा बनाकर स्नान करवाकर होम करते हैं। उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते है और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते है। उस वक्त गुरू पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि तू अब ब्राह्मण हुआ है और ब्राह्मण कर्म करना। इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कन्दोरा बांधते हैं और एक दण्ड हाथ में दे देते है। तत्पश्चात्‌ उपस्थित लोगों से भीख मांगता है। शाम को खाना खाने के पश्चात्‌ दण्ड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मै पढ़ने के लिए काशी जाता हूँ। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है।